नेतृत्व पर उठते सवाल : वीरेन्द्र खागटा

शीत सत्र से पहले यशवंत सिन्हा ने अपनी ही पार्टी के अध्यक्ष को इस्तीफा देने के लिए कहकर न सिर्फ इस मुद्दे को जीवंत कर दिया है, बल्कि इससे भाजपा का संकट और गहरा गया लगता है। किसी राजनीतिक पार्टी का कोई राष्ट्रीय अध्यक्ष शायद ही कभी अपनी पार्टी पर वैसा बोझ बना होगा, जैसा आज नितिन गडकरी भाजपा के लिए बन गए हैं।

कोई दूसरी पार्टी होती, तो अपने अध्यक्ष से खुद को कब का अलग कर लेती। खुद भाजपा ने भी बंगारू लक्ष्मण के मामले में ऐसा ही किया था। पर आज वह वैसा नहीं कर पा रही, क्योंकि आज वह जिस बोझ से दबी जा रही है, वह अध्यक्ष के चुनाव का नहीं, बल्कि पार्टी की नेतृत्वहीनता का बोझ है। आज यह जानना मुश्किल है कि पार्टी को चला कौन रहा है? पार्टी चलाने की दावेदारी और वास्तविकता के बीच जो खाई है, भाजपा उसी में डूबती-धंसती जा रही है।

पिछले दिनों राम जेठमलानी, यशवंत सिन्हा और जसवंत सिंह जैसे नेताओं को ठिकाने लगाने और अपना बचा-खुचा अस्तित्व बचाने के लिए पार्टी एस गुरुमूर्ति को लेकर आई थी। उसके हवाले से घोषणा की गई थी कि नितिन गडकरी एकदम पवित्र आत्मा हैं। अब न तो उन्हें इस्तीफा देने की जरूरत है, न ही पार्टी को नया अध्यक्ष चुनने की! यह एक नई किस्म की राजनीतिक शैली है, जिसका जन्म अन्ना-अरविंद आंदोलन से हुआ है।

यह शैली इस प्रकार काम करती है कि इधर भ्रष्टाचार का आरोप लगा नहीं कि आरोपों की तुरंत जांच होती है और तुरंत ही फैसला भी दे दिया जाता है। हमने देखा ही कि अन्ना आंदोलन के दौरान जिन पंद्रह मंत्रियों के खिलाफ आरोप लगाए गए थे, उन सबको तुरंत क्लीन चिट मिल गई थी।

गांधी परिवार के दामाद रॉबर्ट वाड्रा पर आरोप लगे, तो कांग्रेस पार्टी ने उसे शुद्ध करार दिया! शरद पवार के साथ ऐसा हुआ, और अब गडकरी के साथ भी यही प्रक्रिया अपनाई गई। पाकिस्तानी जेल में बंद फैज अहमद फैज ने भी ऐसी ही लाचारी महसूस की होगी, तब जाकर लिखा होगा-बने हैं अहले हवस मुद्दई भी मुंसिफ भी/किसे वकील करें किससे मुंसिफी चाहें!

लेकिन ऐसी उलझन की डोर कभी-कभी सुलझने के बजाय और उलझ जाती है। गडकरी के मामले में ऐसा ही हुआ। गडकरी-नरेंद्र मोदी- राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के भीतरी घात-प्रतिघात जो भी हों, गुरुमूर्ति ने एक ही झटके में खुद को इससे अलग कर लिया और कहा कि उन्होंने गडकरी को कोई क्लीन चिट नहीं दी है। हालांकि तुरंत उन्होंने अपना वह ट्वीट वापस भी ले लिया, लेकिन जो होना था, वह तो हो ही चुका। यशवंत सिन्हा का विद्रोह बताता है कि ऊपरी तौर पर दबाने से सचाई दबने वाली नहीं है।

वस्तुतः आज संघ परिवार का कोई ऐसा मुखिया नहीं रह गया है, जो सबके बारे में सोचता हो और जिसका रुक्का सबके यहां समान रूप से चलता हो। यूपीए सरकार के शासन ने दक्षिणपंथ को सत्वहीन बनाकर छोड़ दिया है। पांच वर्षों तक सत्ता का स्वाद चखने के बाद भाजपा के भीतर ऐसे लोगों की बाढ़ आ गई है, जो मानते हैं कि सत्ता असल में म्यूजिकल चेयर जैसा खेल है, जिसमें तत्परता सिर्फ इस बात की होनी चाहिए कि खाली कुरसी पर दूसरों से पहले कब्जा जमाया जाए।

इनके पुरखों ने सत्ता पाने के जो रास्ते बनाए, वे मेहनत, धीरज और किसी हद तक त्याग की मांग करते हैं। पर वह सोच आज की राजनीतिक शैली से मेल नहीं खाती। अब सारा खेल समीकरणों का है, फिर चाहे वह जातिगत समीकरण हो या सांप्रदायिक या फिर गरीबों के नाम पर बना कोई नया समीकरण। समीकरण बनता है, ले-देकर गोटियां बिठाई जाती हैं और चुनाव मैनेज हो जाता है।

नितिन गडकरी इस नई राजनीतिक संस्कृति के प्रतीक-पुरुष माने जा सकते हैं। उन्होंने बड़ी चालाकी से अपने जैसों के लिए एक नया शब्द गढ़ा है-सामाजिक उद्यमी। उन जैसों के लिए कोई भी सामाजिक काम एक धंधा है। संपत्ति के आधार पर सत्ता राजनीति की नई शैली है, जहां नितिन गडकरी और अमर सिंह में कोई फर्क नहीं है। यहां येदियुरप्पा को सौदा नहीं पटने पर नई पार्टी बनाने की आजादी होती है। राम जेठमलानी या यशवंत सिन्हा सत्ता राजनीति की इसी शैली पर उंगली उठा रहे हैं।

भाजपा आज इस संकट से सबसे ज्यादा घिरी है, तो इसलिए कि यह बुनियादी तौर पर व्यापारियों की पार्टी रही है। जब तक यह अपना जनाधार खोजती और बनाती रही, छोटे और मंझोले व्यापारियों में इसकी पहुंच थी। लेकिन इस जनाधार को तब गहरा धक्का लगा, जब पार्टी सत्ता में आई और प्रमोद महाजन जैसे लोग इसके आधार बने। अब पार्टी के सामने चुनौती थी कि कैसे कांग्रेस को सत्ता से दूर रखा जाए। इसी कोशिश में पार्टी का कॉरपोरेटीकरण हुआ। इंडिया शाइनिंग का नारा इसी मानसिकता की उपज था। लेकिन बहुत हाथ-पैर मारने के बावजूद पार्टी को पराजय हाथ लगी। अटल बिहारी वाजपेयी के अवसान के साथ ही पार्टी के वे सारे लोग अप्रभावी हो गए, जिनकी जनता में अपनी पहचान थी। यह गडकरियों के उदय का दौर था।

लालकृष्ण आडवाणी को छोड़ दे, तो पार्टी में कोई भी नेता नहीं है, हां, सत्ता के दावेदार बेशक कई लोग हैं। पार्टी आज जड़विहीन नेताओं का जमघट है। आडवाणी जब-तब अपने पुराने वक्त को पकड़ने की कोशिश करते हैं, लेकिन उम्र व वक्त, दोनों की दौड़ में वह पीछे छूट गए हैं। पहले इस खालीपन को संघ परिवार के लोग भरते थे, लेकिन वहां सत्ता हस्तांतरण की जो शैली बनी है, वह नई प्रतिभा को आगे बढ़ने ही नहीं देती। इसलिए दोयम दरजे के लोग ऊपरी सीढ़ियों तक पहुंचते हैं। यह पतन संघ परिवार की सबसे बड़ी त्रासदी है। इसे जो रोक पाएगा, वही आगे भाजपा को बदलने वाला नेता बन सकेगा।

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